यूपी के सरकारी विद्यालयों की हालात खस्ता, चार साल में घटे 7 लाख छात्र

punjabkesari.in Thursday, May 18, 2017 - 07:26 PM (IST)

लखनऊ: प्राथमिक और उच्च प्राथमिक शिक्षा में सुधार संबंधी उत्तर प्रदेश सरकार के तमाम दावों के परे सरकारी विद्यालयों में पिछले चार साल में छात्रों की संख्या करीब सात लाख की कमी दर्ज की गयी है। यह खुलासा आज यहां देश के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक(कैग) की विधानसभा में पेश रिपोर्ट से हुआ।

रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2012-13 में इन विद्यालयों में छात्रों की संख्या तीन करोड़ 71 लाख थी जो 2015-16 में घटकर 3.64 करोड़ रह गयी। रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2012 से 2016 तक करीब छह लाख 22 हजार बच्चों को पुस्तकें ही उपलब्ध नहीं करायी गयीं। 32.21 प्रतिशत बच्चों को स्कूल खुलने के पांच महीने बाद पुस्तकें उपलब्ध करायी गयीं। रिपोर्ट के अनुसार 2010 से 2016 की अवधि में 18.35 करोड पुस्तकों के सापेक्ष 5.91 करोड़ पुस्तकें अगस्त या उसके बाद वितरित की गईं। 

2011-12 में सर्व शिक्षा अभियान के तहत स्वीकृत दो यूनीफार्म के सापेक्ष छात्रों को एक ही यूनीफार्म दिये गये जबकि 2011 से 2016 तक दस लाख छह हजार बच्चों को 20 से 230 दिनों तक की देरी से यूनीफार्म उपलब्ध कराये गये। 97 हजार बच्चों को तो यूनीफार्म मिला ही नहीं जबकि पैसे की कमी नहीं थी। 

कैग ने छात्र शिक्षक अनुपात पर भी सवाल खड़ा किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि कई विद्यालयों में यह अनुपात चौंकाने वाला रहा। छात्रों की संख्या की अनुपात में अध्यापक काफी कम पाये गये। सोनभद्र में आठ विद्यालयों के निर्माण के लिए स्वीकृत 19 लाख 25 हजार रुपये निकाल लिये गये लेकिन विद्यालय अद्र्धनिर्मित ही रहे। राज्य के 1.6 लाख विद्यालयों में से 50 हजार 849 में खेल के मैदान ही नहीं थे जबकि 57 हजार 107 में चारदीवारी नहीं थी।

रिपोर्ट के अनुसार 2978 विद्यालयों में पेयजल की सुविधा नहीं पायी गयी और 1734 ऐसे विद्यालय पाये गये जिनमें बालक और बालिकाओं के लिए एक ही शौचालय था। 34,098 विद्यालयों में रुपये निकाल लेने के बावजूद बिजली नहीं पायी गयी। इस मद में 64 करोड़ 22 लाख रुपये खर्च होना पाया गया। कैग ने दिव्यांग बच्चों को दी जाने वाली सुविधाओं में गोलमाल की ओर संकेत देते हुए अपनी रिपोर्ट में कहा है कि वर्ष 2010 से 2016 के बीच में विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों के रुप में नामांकित 18.76 लाख छात्र/छात्राओं में से मात्र 2.09 लाख बच्चों के पास विकलांगता प्रमाणपत्र था। फिर भी सभी बच्चों को अर्ह मानते हुए 287.88 करोड़ रुपये खर्च कर दिये गए।