बीजेपी की राजनीति में उर्वरक बने स्वामी नारायण संप्रदाय के संस्थापक थे यूपी के घनश्याम पाण्डेय

punjabkesari.in Friday, Dec 08, 2017 - 01:03 PM (IST)

लखनऊ, आशीष पाण्डेय: गुजरात का स्वामीनारायण मंदिर। कौन थे स्वामी नारायण? क्या आपको पता है कि गुजरात की राजनीति में स्वामी नारायण का वही स्थान है जो बीजेपी में आरएसएस का है। गुजरात में सरकार चाहे जिसकी हो, आर्शीवाद उसे स्वामीनारायण से ही मिलता है। कहा जाता है कि गुजरात में स्वामीनारायण संप्रदाय की सामाजिक व राजनीति क्षमता को जिसने समझ लिया उसके लिए गुजरात की राजनीति को समझना आसान हो जाएगा। आज हम आपको स्वामी नारायण  और उनके अध्यात्म से लेकर राजनीति ताकत के बारे में बताएंगे।

यूपी के थे स्वामीनारायण
3 अप्रैल 1781 (चैत्र शुक्ल 9, वि.संवत 1837) को श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या के पास स्थित ग्राम छपिया में एक बालक का जन्म हुआ। पिता हरिप्रसाद व माता भक्तिदेवी ने बालक का नाम घनश्याम रखा। बालक के हाथ में पद्म और पैर से बज्र, ऊध्र्वरेखा तथा कमल का चिन्ह देखकर ज्योतिषियों ने कह दिया कि यह बालक लाखों लोगों के जीवन को सही दिशा देगा। पांच वर्ष की अवस्था में बालक को अक्षरज्ञान दिया गया। आठ वर्ष का होने पर उसका जनेऊ संस्कार हुआ। छोटी अवस्था में ही उसने अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। जब वह केवल 11 वर्ष का था, तो माता व पिताजी का देहांत हो गया। कुछ समय बाद अपने भाई से किसी बात पर विवाद होने पर उन्होंने घर छोड़ दिया और अगले सात साल तक पूरे देश की परिक्रमा की। अब लोग उन्हें नीलकंठवर्णी कहने लगे। इस दौरान उन्होंने गोपालयोगी से अष्टांग योग सीखा। वे उत्तर में हिमालय, दक्षिण में कांची, श्रीरंगपुर, रामेश्वरम् आदि तक गये। इसके बाद पंढरपुर व नासिक होते हुए वे गुजरात आ गये। एक दिन नीलकंठवर्णी मांगरोल के पास लोज गांव पहुंचे। वहां उनका परिचय स्वामी मुक्तानंद में हुआ, जो स्वामी रामानंद के शिष्य थे। नीलकंठवर्णी स्वामी रामानंद के दर्शन को उत्सुक थे। उधर रामांनद जी भी प्राय: भक्तों से कहते थे कि असली नट तो अब आएगा, मैं तो उसके आगमन से पूर्व डुगडुगी बजा रहा हूं। भेंट के बाद रामांनद जी ने उन्हें स्वामी मुक्तानंद के साथ ही रहने को कहा। उन दिनों स्वामी मुक्तानंद कथा करते थे। उसमें स्त्री तथा पुरुष दोनों ही आते थे। नीलकंठवर्णी ने देखा और अनेक श्रोताओं और साधुओं का ध्यान कथा की ओर न होकर महिलाओं की ओर होता है। अत: उन्होंने पुरुषों तथा स्त्रियों के लिए अलग कथा की व्यवस्था की तथा प्रयासपूर्वक महिला कथावाचकों को भी तैयार किया। उनका मत था कि संन्यासी को उसके लिए बनाये गये सभी नियमों का कठोरतापूर्वक पालन करना चाहिए।

पटेल व स्वामीनारायण में संबंध 
2 नवंबर 2016 को पीएम मोदी जिस स्वामीनारायण संप्रदाय की हीरक जयंती में शामिल होने गांधीनगर गए थे, वह संप्रदाय अपने आप में एक तिलिस्म है। दिल्ली के लोग इस संप्रदाय के बारे में इतना जानते हैं कि अब दिल्ली में एक स्वामीनारायण मंदिर या अक्षरधाम मंदिर बन गया है जो धार्मिक महत्व से ज्यादा पर्यटन के आकर्षण की वजह से जाना जाता है। स्वामीनारायण संप्रदाय गुजरात में प्रभावी है लेकिन देश के बाकी हिस्सों में इसकी कोई खास उपस्थिति नहीं है? स्वामीनारायण संप्रदाय को हम आमतौर पर जिस रूप में जानते हैं वह इस संप्रदाय का पटेल संस्करण है क्योंकि स्वामीनारायण संप्रदाय के इस धड़े को गुजरात के पटेल समुदाय के लोग नियंत्रित करते हैं। इसकी स्थापना भी एक पटेल ने किया था और इसके प्रमुख आचार्य भी पटेल ही होते हैं। लेकिन पटेल ही स्वामीनारायण संप्रदाय के इकलौती संतान नहीं हैं। स्वामीनारायण संप्रदाय आज पांच हिस्सों में बंटा हुआ है जिन्हें गादी कहा जाता है। इस बंटवारे की शुरुआत होती है खुद स्वामीनारायण से। स्वामी नारायण अर्थात घनश्याम पांडे अपने गुरु के देहावसान के बाद उद्धव संप्रदाय के प्रमुख बने और उन्होंने स्वामी नारायण का मंत्र प्रदान करना शुरु किया। इसीलिए कालांतर में स्वामी सहजानंद स्वामीनारायण के नाम से जाने गये। और उनकी शिक्षाओं को माननेवाला संप्रदाय स्वामी नारायण संप्रदाय के नाम से जाना गया।

संप्रदाय को दो गद्दियों में विभक्त
1830 में अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने संप्रदाय को दो गद्दियों में विभक्त कर दिया जिसमें एक नर नारायण गादी और दूसरी लक्ष्मी नारायण देव गादी। स्वामीनारायण संप्रदाय के लक्ष्मी नारायण गादी जिसे वडतल गादी भी कहा जाता है यहीं से एक सन्यासी ने दीक्षा ली जिनका नाम था डूंगर पटेल। यही डूंगर पटेल जिन्हें शास्त्री जी महाराज के नाम से जाना जाता था उनका वडतल गादी से विवाद हुआ तो उन्होंने स्वामीनारायण संप्रदाय के भीतर एक नया संप्रदाय स्थापित कर दिया जिसे बोचसणवासी अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था (बीएपीएस) के नाम से जाना जाता है। शास्त्री महाराज चाहते थे कि स्वामीनारायण मंदिरों में राधा स्वामी या सीताराम की मूर्तियों की बजाय संप्रदाय के संस्थापक भगवान स्वामीनारायण की मूर्ति मुख्य रूप से स्थापित की जाए। यह स्वामीनारायण संप्रदाय में बहुत बड़ी बहस का मुद्दा बन गया और इस पर सहमति नहीं बन पायी और आखिर में शास्त्री महाराज वहां से अलग हटकर 1905 में बीएपीएस की स्थापना की और बोचसण में पहला मंदिर बनाया जिसमें अक्षर पुरुषोत्तम के रूप में स्वामीनारायण और गुणातीतानंद स्वामी की मूर्तियां स्थापित कीं। इस तरह स्वामीनारायण संप्रदाय के तीन संप्रदाय हो गये। क्योंकि गुजरात में पटेल समुदाय ताकतवर समुदाय है इसलिए बीएपीएस की मान्यता बाकी मूल दो समुदायों से ज्यादा हो गयी जिसकी स्थापना खुद स्वामीनारायण ने किया था।

बीजेपी से काफी मजबूत संबंध
पिछले 25 सालों में स्वामीनारायण संप्रदाय का राजनीति से संपर्क गहरा हुआ है। भारतीय जनता पार्टी से इनके संबंध काफी मजबूत हैं। जैसे बीजेपी के हिन्दू धर्म के अन्य संप्रदायों और शक्ति के केंद्रों से अच्छे संबंध हैं वैसे ही यहां स्वामीनारायण से भी है। बीजेपी का स्वामीनारायण के साथ रिश्ता काफी अहम है। एक समय ऐसा भी था जब स्वामीनारायण मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित था। इसके लिए कांग्रेस ने गुजरात में सत्याग्रह शुरू किया था। स्वामीनारायण में मंदिर में भी साधुओं के बीच जाति को लेकर भेदभाव रहे हैं। भगवा ऊंची जाति वाले पहनते हैं और सफेद नीची जाति वाले।बीजेपी के लिए स्वामीनारायण संप्रदाय ऊर्वर ज़मीन की तरह रहा है। यही कारण भी रहा है कि बीजेपी ने गांधी को पीछे रख दिया और स्वामीनारायण को आत्मसात कर लिया। कहा तो यहां तक जाता है कि स्वामीनारायण मंदिर से राजनीतिक पार्टियों को चंदा भी मिलता है। एक बार तो आरएसएस ने स्वामीनारायण की मूर्ति को ही अपना यूनिफार्म पहना दिया था जिसका कांग्रेस ने काफी विरोध भी किया था। गुजरात में ही इस संप्रदाय को मामले वालों की संख्या 20 लाख से अधिक है। इसके अलावा दूनिया भर में भी स्वामीनारायण के भक्त हैं।

गुजराती राजनीति के आवश्यक अंग
आज स्वामीनारायण संप्रदाय के पांच संप्रदाय हैं और सब अपने अपने स्तर पर काम करते हैं। इसमें आज दुनिया में सर्वाधिक चर्चा पटेलों के प्रभुत्व वाले बीएपीएस की होती है जिसके लंदन और अमेरिका में भी मंदिर हैं। स्वामीनारायण संप्रदाय के इस बीएपीएस विभाग को सबसे ज्यादा प्रचार मिला प्रमुख स्वामी जी के नेतृत्व में जिनका पिछले वर्ष देहावसान हो गया है। अब इसका नेतृत्व पटेल समुदाय के ही एक सन्यासी करते हैं। लेकिन बीएपीएस के इस हीरक जयंती के अलावा बीजे कई दिनों से मोदी लगातार यहां लगातार उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं। इसका कारण सर्फ धार्मिक ही नहीं राजनीतिक महत्व भी है। राजनीतिक रूप से हार्दिक पटेल का उभार और कांग्रेस के पाटीदारों की राजनीति में घुसपैठ से बीजेपी के लिए जो खतरा पैदा हो रहा था उसे बहुत हद तक कम करने की कोशिश के रूप में भी देखा जाता है। बीएपीएस के साथ मोदी का पुराना रिश्ता है और वो प्रमुख स्वामी के करीबी रहे हैं। जाहिर है, मोदी के वहां जाने से उन्हें इसका राजनीतिक फायदा भी मिलेगा और पटेल वोटबैंक को भी साधने में मदद मिलेगी।