जयंती पर विशेषः कक्षा से बाहर बैठाया जाता था, पानी के बर्तन तक नहीं छू पाते थे अंबेडकर...

punjabkesari.in Friday, Apr 14, 2023 - 09:22 AM (IST)

यूपी डेस्क(अजय कुमार): आधुनिक भारत की मजबूत नींव रखने वाले परमपूज्य बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर की आज 132वीं जयंती है। दुनियाभर में उनके अनुयायी उनकी जयंती पर खुशियां मनाकर उनको नमन और श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं। उनका जीवन संघर्ष करोड़ों गरीबों, मजदूरों, वंचितों व अन्य मेहनतकशों के लिए आज भी उम्मीद की किरण है। मानसिक रूप से संकीर्ण लोग अंबेडकर को भले ही सिर्फ दलितों का नेता कहते हों लेकिन हकीकत में उन्होंने बिना भेदभाव के देश के सभी वर्गों के लिए काम किया है। आइए उनके जीवन संघर्ष के बारे में जानते हैं.....
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महार जाति की वजह से होता था भेदभाव
भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 में मध्य प्रदेश के महु में हुआ था। उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल सेना में सूबेदार थे। माता का नाम भीमाबाई था जो गृहणी थीं। भीमराव का परिवार हिन्दू धर्म के महार जाति से सम्बन्धित था, उस समय कुछ कट्टरपन्थी सवर्ण इस जाति के लोगों को अस्पृश्य समझकर उनके साथ भेदभाव एवं बुरा व्यवहार करते थे। यही कारण है कि भीमराव को भी बचपन में सवर्णों के बुरे व्यवहार एवं भेदभाव का शिकार होना पड़ा। स्कूल में उन्हें अस्पृश्य जानकर अन्य बच्चों से अलग एवं कक्षा से बाहर बैठाया जाता था। अध्यापक उन पर ध्यान भी नहीं देते थे। उन्हें प्यास लगने पर स्कूल में रखे पानी के बर्तन को छूकर पानी पीने की अनुमति नहीं थी, चपरासी या कोई अन्य व्यक्ति ऊँचाई से उनके हाथों पर पानी डालता था। यदि कभी चपरासी नहीं होता या कोई अन्य व्यक्ति ऐसा नहीं करना चाहता था, तो ऐसी स्थिति में उन्हें प्यासा ही रहना पड़ता था। लोगों के इस भेदभाव एवं बुरे व्यवहार का प्रभाव उन पर ऐसा पड़ा कि दलितों एवं अस्पृश्य माने जाने वाले लोगों के उत्थान के लिए उन्होंने उनका नेतृत्व करने का निर्णय लिया तथा उनके कल्याण हेतु एवं उन्हें उनके वास्तविक अधिकार व सम्मान दिलाने के लिए दकियानूसी तथा कट्टरपन्थी लोगों के विरुद्ध वे जीवनभर संघर्ष करते रहे।

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मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने बाद मिली छात्रवृत्ति
1905 ई. में उनका विवाह रामाबाई नामक एक कन्या से हो गया और उसी वर्ष उनके पिता उन्हें लेकर बम्बई चले गए, जहाँ उनका नामांकन एलफिन्सटन स्कूल में करवा दिया गया। 1907 ई. में जब उन्होंने अच्छे अंकों के साथ मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली, तो बड़ौदा के महाराजा सयाजी राव गायकवाड़ ने प्रसन्न होकर उन्हें 25 रुपये मासिक छात्रवृत्ति देना प्रारम्भ किया। 1912 ई. में बी.ए. करने के बाद बड़ौदा महाराज ने उन्हें अपनी फौज में उच्च पद पर नियुक्त कर लिया। 1913 ई. में अपने पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने इस नौकरी से त्याग-पत्र देकर उच्च शिक्षा हेतु विदेश जाने का फैसला किया। बड़ौदा के महाराज ने उनके इस फैसले का स्वागत किया एवं उनके त्याग-पत्र को स्वीकार कर उन्हें उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति भी प्रदान की।

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अंबेडकर के नाम हैं कई उपाधियां
इसके बाद भीमराव अमेरिका चले गए, जहाँ न्यूयॉर्क के कोलम्बिया विश्वविद्यालय से उन्होंने 1915 ई. में एम.ए. तथा 1916 ई. में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त करने के बाद भी उच्च शिक्षा की उनकी भूख शान्त नहीं हुई थी, इसलिए 1923 ई. में वे इंग्लैण्ड चले गए, जहाँ लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से उन्होंने डॉक्टर ऑफ साइन्स की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद कानून में करियर बनाने के दृष्टिकोण से उन्होंने बार एट लॉ की डिग्री भी प्राप्त की। कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1923 ई. में अम्बेडकर स्वदेश लौटे तथा बम्बई उच्च न्यायालय में वकालत करना प्रारम्भ किया। यहाँ भी उन्हें अपनी जाति के प्रति समाज की गलत धारणा एवं भेदभाव के कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्हें कोर्ट में कुर्सी नहीं दी जाती थी तथा कोई मुवक्किल उनके पास नहीं आता था। संयोगवश उन्हें एक हत्या का मुकदमा मिला, जिसे किसी भी बैरिस्टर ने स्वीकार नहीं किया था। उन्होंने इतनी कुशलता से इस मामले की पैरवी की कि जज ने उनके मुवक्किल के पक्ष में निर्णय दिया। इस घटना से अम्बेडकर को खूब ख्याति मिली।

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बचपन से सहा छुआछूत-भेदभाव का अपमान
अम्बेडकर ने बचपन से ही अपने प्रति समाज के भेदभाव रूपी अपमान को सहा था। इसलिए उन्होंने इसके खिलाफ संघर्ष की शुरूआत की। इस उद्देश्य हेतु उन्होंने 1927 ई. में 'बहिष्कृत भारत' नामक मराठी पाक्षिक समाचार पत्र निकालना प्रारम्भ किया। इस पत्र ने शोषित समाज को जगाने का अभूतपूर्व कार्य किया। उस समय दलितों को अछूत समझकर मन्दिरों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था। उन्होंने मन्दिरों में अछूतों के प्रवेश की माँग की और 1930 में 30 हजार दलितों को साथ लेकर नासिक के कालाराम मन्दिर में प्रवेश के लिए सत्याग्रह किया। इस अवसर पर उच्च वर्णों के लोगों की लाठियों की मार से अनेक लोग घायल हो गए. किन्तु उन्होंने सबको मन्दिर में प्रवेश करा कर ही दम लिया। इस घटना के बाद लोग उन्हें 'बाबा साहब कहने लगे।
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'इण्डिपेन्डेण्ट लेबर पार्टी की स्थापना
उन्होंने 1935 ई. में 'इण्डिपेन्डेण्ट लेबर पार्टी की स्थापना की, जिसके द्वारा उन्होंने दलित एवं अछूत समझे जाने वाले लोगों की भलाई के लिए कट्टरपन्थियों के विरुद्ध संघर्ष प्रारम्भ किया। सन् 1937 ई. में बम्बई के चुनावों में इनकी पार्टी को पन्द्रह में से तेरह स्थानों पर जीत हासिल हुई। हालाँकि अम्बेडकर गाँधी जी के दलितोद्धार के तरीकों से सहमत नहीं थे, लेकिन अपनी विचारधारा के कारण उन्होंने कांग्रेस के जवाहरलाल नेहरू एवं सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे बड़े नेताओं को अपनी ओर आकर्षित किया।

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स्वतन्त्र भारत का प्रथम कानून मन्त्री बने
जब 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ तो उन्हें स्वतन्त्र भारत का प्रथम कानून मन्त्री बनाया गया। इसके बाद उन्हें भारत की संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। भारत के संविधान को बनाने में अम्बेडकर ने मुख्य भूमिका निभाई, इसलिए उन्हें भारतीय संविधान का निर्माता भी कहा जाता है।
 

अंबेडकर ने की कई पुस्तकों की रचना
अपने जीवनकाल में अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उन्होंने कई पुस्तकों की रचना भी की। जिनमें से कुछ उल्लेखनीय पुस्तकें हैं- 'अनटचेबल्स हू आर दे', 'स्टेट्स एण्ड माइनॉरिटीज', 'हू वर दी शूद्राज', 'बुद्धा एण्ड हिज धम्मा', 'पाकिस्तान एण्ड पार्टीशन ऑफ इण्डिया', 'थॉट्स ऑफ लिंग्युस्टिक स्टेट्स', 'द प्रॉब्लम ऑफ द रुपी', 'द इवोल्यूशन ऑफ प्राविन्शियल फायनैन्स इन ब्रिटिश इण्डिया', 'द राइज एण्ड फॉल ऑफ हिन्दू वूमेन', 'इमैनसिपेशन ऑफ द अनटचेबल्स'।

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सभी धर्मों का समान रूप से आदर करते थे अंबेडकर
अम्बेडकर सभी धर्मों का समान रूप से आदर करते थे। वे हिन्दू धर्म के खिलाफ नहीं थे तथा इस धर्म की बुराइयों एवं इसमें निहित भेदभाव को दूर करना चाहते थे। उन्हें जब लगने लगा कि कट्टरपन्थी एवं दकियानूसी विचारधारा के लोगों के रहते हुए पिछड़े एवं दलितों का भला नहीं हो सकता, तो उन्होंने धर्म-परिवर्तन का निर्णय लिया। 14 अक्टूबर, 1956 को उन्होंने दशहरे के दिन नागपुर में एक विशाल समारोह में लगभग दो लाख लोगों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।

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6 दिसम्बर, 1956 को निधन
डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक महान् विधिवेत्ता, समाज सुधारक, शिक्षाविद् एवं राजनेता थे। उन्होंने अन्याय, असमानता, छुआछूत, शोषण तथा ऊँच-नीच के खिलाफ जीवन भर संघर्ष किया। 6 दिसम्बर, 1956 को भारत के इस महान् सपूत एवं दलितों के उद्धारक व मसीहा का निधन हो गया। उनकी उपलब्धियों एवं मानवता के लिए उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने 1990 में उन्हें मरणोपरान्त देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया। अम्बेडकर आज सशरीर हमारे बीच भले न हों किन्तु यदि आज दलितों को बहुत हद तक उनका सम्मान मिला है तथा समाज में छुआछूत की भावना कम हुई है तो इसका अधिकांश श्रेय डॉ. भीमराव अम्बेडकर को ही जाता है। अम्बेडकर की विचारधारा पूरी मानवता का कल्याण करती रहेगी, उनका जीवन हम सबके लिए अनुकरणीय है।


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Content Writer

Ajay kumar

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