कहानी ‘काकोरी कांड’ के तीन शहीदों की, क्रांतिकारियों का कारनामा देख डर गई थी गोरी सरकार

punjabkesari.in Monday, Dec 19, 2022 - 04:09 PM (IST)

'जुबाने-हाल से अशफ़ाक़ की तुर्बत ये कहती है, मुहिब्बाने-वतन ने क्यों हमें दिल से भुलाया है ?

बहुत अफसोस होता है बड़ी तकलीफ होती है, शहीद अशफ़ाक़ की तुर्बत है और धूपों का साया है'

 

नेशनल न्यूज (रानू मिश्रा): जी हां ये चंद लाइने उन अमर शहीदों के लिए सटीक बैठती हैं... जिन्होंने हंसते-हंसते भारत में शहीदों की तुर्बत की खुशबू भर दी.. उन अमर शहीदों ने उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर शाहजहांपुर की धरती पर जन्म लेकर हिंदुस्तान की जमीं पर आजादी की एक अलख जगाई... आज आजादी के नायक रहे उन तीन शहीदों के बलिदान का दिन है... जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ हल्ला ही नहीं बोला बल्कि हंसते- हंसते फांसी के फंदे पर चढ़ गए... ये आजादी के नायक कोई और नहीं बल्कि राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और रोशन सिंह थे... आज ही की वो मनहूस तारीख़ थी जब ब्रिटिश सरकार ने आजादी के इन तीनों नायकों को फांसी पर चढ़ा दिया था... आखिर बिस्मिल, अशफाक और रोशन सिंह को फांसी क्यों दी गई थी?, तीनों शहीदों का काकोरी कांड से क्या कनेक्शन था? बिस्मिल-अशफाक और रोशन सिंह को फांसी देने के लिए अलग- अलग शहर, अलग-अलग जेलों के अलग- अलग फंदे क्यों प्रयोग किए गए थे? आज हम आपको आजादी के नायक औऱ हिंदुस्तान में आजादी की अलख जगाने वाले बिस्मिल-अशफाक और रोशन सिंह की पूरी कहानी बताएंगे... बताएंगे कैसे काकोरी कांड को अंजाम दिया गया और सरकारी ख़जाने को डंके की चोट पर लूट लिया गया।

वो 19 दिसंबर 1927 का दिन था जब भारत के शहीद क्रांतिकारियों अशफाक उल्ला खां, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा दी गई थी... फांसी की इस पूरी कहानी को समझने के लिए आपको गांधी जी के उस असहयोग आंदोलन को समझना होगा... जिसकी वजह से शहीद क्रांतिकारियों में गांधी के प्रति नाराजगी की लहर उठी और बात काकोरी कांड तक पहुंच गई।

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गांधी से नाराजगी और उठा ली बंदूकें

अंग्रेज हुक्मरानों की बढ़ती ज्यादतियों का विरोध करने के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 1 अगस्त 1920 को असहयोग आंदोलन की शुरुआत की थी... आंदोलन के दौरान स्टूडेंट्स ने सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया था... वकीलों ने अदालत में जाने से इनकार कर दिया था... गांव से लेकर शहर तक गांधी जी के असहयोग आंदोलन का असर व्यापक स्तर पर दिखने लगा था... लेकिन, 4 फरवरी सन 1922 को जब देश भर में गांधी जी का असहयोग आंदोलन चल रहा था.. असहयोग आंदोलन के समर्थन में तैयारी के साथ कई जत्थे निकले थे. आंदोलनकारियों ने यह तय किया था कि अंग्रेज कितना भी अत्याचार करें पीछे नहीं हटा जाएगा. सेवकों को अलग-अलग जत्थे मे बांट दिया गया था... लेकिन पुलिस ने भीड़ को तितर- बितर करने के लिए गोली चला दी जिसमें 10 आंदोलनकारियों की मौत हो गई... गुस्साई भीड़ ने पुलिस थाने पर धावा बोल दिया और थाने में आग लगा दी... जिसमें दर्जनों पुलिसकर्मियों की जलकर मौत हो गई... जिसके बाद साल 1922 में चौरी चौरा कांड के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का फैसला किया तो कई युवाओं को उनके इस कदम से निराशा हुई. इनमें रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक भी शामिल थे।

 

‘मांगने से नहीं लड़ने से मिलेगी स्वतंत्रता’

गांधी से मोहभंग होने के बाद युवा क्रांतिकारी हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन पार्टी में शामिल हो गए. इनका मानना था कि मांगने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है. इसके लिए हमें लड़ना होगा... पर लड़ने के लिए बम, बंदूकों और हथियारों की जरूरत थी... जिनके सहारे अंग्रेजों से आजादी छीनी जाती. युवा क्रांतिकारियों का ये भी मानना था कि अंग्रेज इसीलिए इतने कम होने के बावजूद करोड़ों भारतीयों पर शासन कर पा रहे हैं क्योंकि उनके पास अच्छे हथियार और एडवांस्ड टेक्नोलॉजी है... ऐसी स्थिति में हमें उनसे भिड़ने के लिए ऐसे ही हथियारों की जरूरत होगी... जिसके बाद इन युवा क्रांतिकारियों के दिल और दिमाग में पैसे जुटाने वाले आईडिया ने जन्म ले लिया था।

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कहां से आया सरकारी खजाना लूटने का आइडिया?

क्रांतिकारियों के पास ब्रिटिश हुकूमत से लड़ने के लिए जज्बा था... हिम्मत थी.. औऱ उम्मीद थी... लेकिन कहते हैं ना कि भूखे पेट भजन नहीं होय गोपाला ले तेरी कंठी ले तेरी माला... अंग्रेजी शासन से लड़ने के लिए पैसों और हथियार की जरूरत थी। युवा क्रांतिकारियों के पास यहीं से दिमाग में खुरापाती आइडिय़ा चलने लगा था... ये बात क्रांतिकारियों के दिमाग में चल ही रही थी कि एक रोज रामप्रसाद बिस्मिल ने शाहजहांपुर से लखनऊ की ओर सफर के दौरान ध्यान दिया कि स्टेशन मास्टर पैसों का थैला गार्ड को देता है, जिसे वो ले जाकर लखनऊ के स्टेशन सुपरिटेंडेंट को देता है... फिर क्या था बिस्मिल ने तय किया कि इस पैसे को हर हाल में लूटना है... बस यहीं से काकोरी लूट की नींव पड़ी।

 

काकोरी का किस्सा भगत सिंह की जुबानी

9 अगस्त 1925 को काकोरी में जो हुआ वह देश की आजादी का वो कांड है जिसे सुनकर हर कोई सहम उठता है... ये कोई मामूली लूट नहीं थी बल्कि अंग्रेजी हुकूमत को हिला देने वाला लूट कांड था...  इस घटना के ऊपर शहीद-ए-आज़म भगत सिंह ने काफी विस्तार से लिखा है... उन दिनों छपने वाली पंजाबी पत्रिका ‘किरती’ में भगत सिंह ‘काकोरी के वीरों से परिचय’ नाम के लेख में लिखते हैं।

पंजाबी पत्रिका ‘किरती’ के मुताबिक,'9 अगस्त, 1925 को काकोरी स्टेशन से एक ट्रेन चली. ये करीब लखनऊ से 8 मील की दूरी पर था, ट्रेन चलने के कुछ ही देर बाद उसमें बैठे 3 नौजवानों ने गाड़ी रोक दी.. उनके ही अन्य साथियों ने गाड़ी में मौजूद सरकारी खजाने को लूट लिया. उन तीन नौजवानों ने बड़ी चतुराई से ट्रेन में बैठे अन्य यात्रियों को धमका दिया था और समझाया था कि उन्हें कुछ नहीं होगा बस चुप रहें. लेकिन दोनों ओर से गोलियां चल रही थीं और इसी बीच एक यात्री ट्रेन से उतर गया और उसकी गोली लगकर मौत हो गई... इसके बाद अंग्रेजों ने इस घटना की जांच बैठा दी. सीआईडी के अफसर हार्टन को जांच में लगा दिया गया. उसे मालूम था कि ये सब क्रांतिकारी जत्थे का किया धरा है.. कुछ वक्त बाद ही क्रांतिकारियों की मेरठ में होने वाली एक बैठक का अफसर को पता लग गया और छानबीन शुरू हो गई. सितंबर आते-आते गिरफ्तारियां होनी शुरू हो गईं।'

 

4601 रुपये लूटने के बाद ब्रिटिश हुकूमत में मच गया था भूचाल

बंदूक की नोक पर काकोरी में सरकारी ख़जाने के 4601 रुपये लूटने के बाद ब्रिटिश सरकार में भूचाल मच गया... एक महीने के अंदर लगभग 40 लोगों की गिरफ्तार कर लिया गया.. इनमें स्वर्ण सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी, दुर्गा भगवती चंद्र वोहरा, रोशन सिंह, सचींद्र बख्शी, चंद्रशेखर आजाद, विष्णु शरण दुबलिश, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुंदी लाल, शचींद्रनाथ सान्याल एवं मन्मथनाथ गुप्ता शामिल थे. इनमें से 29 लोगों के अलावा बाकी को छोड़ दिया गया था. 29 लोगों के खिलाफ स्पेशल मजिस्ट्रेट की अदालत में मुकदमा चला और 6 अप्रैल 1927 को आखिरी फैसला सुनाया गया.. जिसमें राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई. जिन लोगों पर मुकदमा चलाया गया उनमें से कुछ को 14 साल तक की सजा दी गई और दो लोग सरकारी गवाह बन गए, इसलिए उनको माफ कर दिया गया। हालांकि,  चंद्रशेखर आजाद किसी तरह फरार होने में कामयाब हो गए थे लेकिन बाद में एक एनकाउंटर में वह भी शहीद हो गए।

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3 शहर, 3 जेलें और 3 फंदे

इसे इत्तेफाक माना जाए या फिर कुछ और एक ही शहर में बिस्मिल, अशफाक और रोशन सिंह का जन्म हुआ और एक ही दिन तीनों अमर शहीदों को फांसी दे दी गई... बस कुछ अलग था तो फांसी का फंदा.. शहर और जेल। काकोरी कांड के लिए भारत के शहीद क्रांतिकारियों अशफाक उल्ला खां, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और ठाकुर रोशन सिंह को 19 दिसंबर 1927 को फांसी दे दी गई.. तीनों की फांसी की सजा एक ही तारीख पर दी गई थी. लेकिन फांसी के लिए तीन अलग- अलग जेल चुनी गई थी।

-   अशफाक उल्ला खां को 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी की सजा दी गई थी।

 -  पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को फैजाबाद जेल में फांसी की सजा दी गई थी।

-   ठाकुर रोशन सिंह को इलाहाबाद जेल में फांसी दी गई थी।

भले ही शहीद क्रांतिकारी पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी दे दी गई थी... लेकिन शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने लिखा है,

लिख रहा हूँ मैं अंजाम जिसका कल आगाज आएगा, मेरे लहू का हर कतरा इंकलाब लाएगा.

मैं रहूँ या ना रहूँ पर एक वादा है तुमसे मेरा कि मेरे बाद वतन पे मरने वालो का सैलाब आएगा.

अमर शहीद क्रांतिकारियों की शहादत पर पूरे देश को फख्र है।


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Content Editor

Anil Kapoor

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