Magh Mela: स्वामी वासुदेवानंद बोले- भगवान आदि शंकराचार्य ने शास्त्र एवं शस्त्रों से की सनातन धर्म की रक्षा

punjabkesari.in Saturday, Jan 21, 2023 - 11:18 PM (IST)

प्रयागराज, Magh Mela:  उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में प्रयागराज (Prayagraj) के त्रिवेणी मार्ग स्थित श्रीमज्ज्योतिष्पीठ (Srimajjyotishpeeth) के माघ मेला शिविर (Magh Mela Camp) में श्रीमज्ज्योतिष्पीठ शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती महाराज (Shankaracharya Swami Vasudevanand Saraswati Maharaj) ने बताया कि भगवान आदि शंकराचार्य (Lord Adi Shankaracharya) ने सवर्ज्ञ वेद की प्रामाणिकता, यज्ञ आदि कर्मकांडो का तिरस्कार तथा एकात्मवाद के विरुद्ध प्रचार प्रसार कर रहे नास्तिकों, चार्वाको और कापालिकों आदि से सनातन वैदिक ग्रंथों के शास्त्रों एवं शस्त्रों द्वारा संघर्ष करके सनातन धर्म (Eeternal Religion) की सुरक्षा की। सनातन वैदिक संस्कृति (Sanatan Vedic Culture) नष्ट प्राय हो गई थी। उन्होंने कहा कि धर्म ईश्वर एवं परलोक का वह मिट चुका था। विलासिता एवं बुद्धिवाद के पाखंड एवं दम्भ की आंधी में धार्मिकता की ज्योति बुझने के कगार पर थी, जिसे पूज्य भगवान आदि शंकराचार्य जी ने नई शक्ति व दिशा प्रदान की। नहीं तो हमेशा के लिए सब कुछ मिट जाता।
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भारत ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व में वैदिक धर्म एवं उपनिषदों की दिव्य वाणी का प्रचार प्रसार
बता दें कि पूज्य श्रीमज्ज्योतिष्पीठ शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती जी ने बताया कि सनातन वैदिक धर्म की इसी संकटकाल में भगवान आदि शंकराचार्य जी का प्रादुभार्व कलिगत 2631 वैशाख शुक्ल पक्ष पंचमी को दक्षिण भारत के केरल प्रांत के कालटी ग्राम में आचार्य शिव गुरु एवं आर्यवा के यहां हुआ। भारत ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व में वैदिक धर्म एवं उपनिषदों की दिव्य वाणी का प्रचार प्रसार हुआ। मात्र 11 वर्ष की अवस्था में समस्त विद्याओं को प्राप्त कर सन्यास ग्रहण करके काशी आदि स्थानों पर धार्मिक जागृति करते हुए कलीगत 2642 में बद्रिकाश्रम पहुंचे। वहां अनीशवर वादियों ने श्री बद्रीनाथ के श्री विग्रह को नारद शिला के नीचे अलकनंदा के ब्रह्मकुंड में डाल दिया था। विग्रह निकालकर उनकी पुणे प्राण प्रतिष्ठा एवं पूजा आदि व्यवस्था कराई जिससे भगवान बद्री विशाल की सेवा पूजा पुन: चलने लगी।
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चारों दिशाओ में स्थापित चारों पीठों की यही शंकराचार्य परंपरा अभी भी मान्य
स्वामी वासुदेवानंद के अनुसार, साधना से वहीं जहां पर शंकराचार्य भगवान को ज्ञान की ज्योति प्राप्त हुई थी कार्तिक शुक्ल पंचमी कलिगत संवत 2646 को ज्योतिषपीठ ज्योतिमठ की स्थापना की। उसी स्थान (पीठ) पर अपने कृपा पात्र शिष्य त्रोटकाचार्य को अपना ही शंकराचार्य नाम देते हुए शंकराचार्य संज्ञा से विभूषित किया। आचार्य त्रोटकाचार्य को ही संपूर्ण उत्तर भारत में सनातन वैदिक धर्म जागृति का दायित्व सौंप दिया। इसके पश्चात संपूर्ण भारत में धर्म- जागृति निरंतर बनाए रखने के लिए भारत के पश्चिमी किनारे द्वारिका पुरी में कार्तिक शुक्ल पंचमी कलिगत संवत 2648 को शारदा मठ फाल्गुन शुक्ला नवमी कलिगत संवत 2648 को दक्षिण प्रांत में श्रृंगेरी मठ तथा वैशाख शुक्ल नवमी कलिगत संवत 2655 को जगन्नाथपुरी में गोवर्धन मठ की स्थापना की। शारदा मठ में हस्त मलकाचार्य, श्रृंगेरी मठ में सुरेशवराचार्य एवं गोवर्धन मठ में पद्मपादाचार्य को अपना शंकराचार्य का नाम पद प्रदान किया। देश के चारों दिशाओ में स्थापित चारों पीठों की यही शंकराचार्य परंपरा अभी भी मान्य व संचालित है। चारों पीठों के विराजमान अलग-अलग शंकराचार्य अपनी अपनी पीठों पर अपना नाम पद प्रदान कर उन्हें उस पीठ का अगला शंकराचार्य घोषित करते हैं। यही गुरु परंपरा है ।


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Content Writer

Mamta Yadav

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