माघ मेला: माटी के चूल्हे और गोबर के उपले कर रहे कल्पवासियों की प्रतीक्षा, जानिए इसका महत्व ?

punjabkesari.in Tuesday, Jan 26, 2021 - 02:16 PM (IST)

प्रयागराज: विश्व के सबसे बड़े आध्यात्मिक और सांस्कृतिक समागम माघ मेले में दूरदराज से आने वाले कल्पवासियों का मिट्टी से बने चूल्हे और गोबर के उपले बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे हैं। संगम की विस्तीर्ण रेती पर दूर दराज से आकर श्रद्धालु एवं साधु संत एक मास का तीर्थ पुरोहित द्वारा व्यवस्थित शिविर में रहकर कल्पवास करते हैं। उस दौरान यहां पर मिट्टी से बने चूल्हे, बोरसी और गोबर से बने उपलों की मांग अधिक हो जाती है। चूल्हे पर खाना पकाने, बोरसी में उपला जलाकर हाथ पैर सेंकने की कड़ाके की सर्दी में आवश्यकता पड़ती है।       

संगम की रेती पर धूनी लगाने के लिए कल्पवासी, साधु-संत और महात्मा कल्पवास के दौरान एक मास तक चूल्हे का ही प्रयोग करते हैं। वे संगम में डुबकी लगाने के साथ मिट्टी के चूल्हे पर बने भोजन से दिन की शुरूआत करते हैं। जिसमें दान-ध्यान और मोक्ष की प्राप्ति करने का मार्ग छिपा होता है। शुद्धता को पहली प्राथमिकता माना जाता है जिसमें मिट्टी के बने चूल्हे और गोबर के बने उपले शुद्धता की कसौटी पर खरे माने जाते हैं।

माटी के चूल्हे और गोबर की पवित्रता को थोड़े में ही समझा जा सकता है। छठ महापर्व पर चढ़ने वाला प्रसाद खजुरी, ठेकुआ बनाने में माटी के बने नए चूल्हे का ही प्रयोग किया जाता है। शाम को गाय के दूध में गुड़ डाल खीर और सोहारी बनता है। इससे पहले गोबर से खासकर गाय के गोबर से आंगन को लीपा जाता है जहां पूजा की शुरूआत होती है। गोबर से लीपे हुए स्थान पर पूजा एक शुद्धता की पहचान है। संगम क्षेत्र के आपसपास रहने वाले लोग सालभर तक मेले की प्रतीक्षा करते हैं। ये लोग मिट्टी का चूल्हा और गोबर से बने उपलों को बेचकर अपना जीवन यहीं यापन करते हैं। अगले साल माघ मेलाए कुम्भ या अर्द्ध कुम्भ का इंतजार करते हैं।

दारागंज में दशास्वमेघ घाट के आसपास और शास्त्री पुल के नीचे झोपड़पट्टी में रहने वाले लोग माटी के चूल्हे और गोबर से उपले पाथने में व्यस्त हैं। शास्त्री पुल के नीचे रहने वाली रानी ने बताया कि मेला लोगों के लिए रोजगार का अवसर होता है। संगम के ईर्द-गिर्द रह कर संगम में श्रद्धालुओं को रोजमरर के सामान बेचने के लिए छोटी-छोटी दुकान खोलकर परिवार का गुजर बसर करते हैं। दारागंज से शास्त्री पुल के नीचे तक रहने वाले बड़ी संख्या में परिवारों का गुजारा इन्ही से चलता है।

धूप का आनंद ले रही रानी देवी ने बताया, ‘‘हम गंगा माइ से मनायी था कि एक साल में नहीं हर तीन महीना मा मेला लगावै, हमन गरीब का पेट भरै का व्यवस्था हो जात है, बाबू। हमन का पारीश्रम ही लागत है। माटी गंगा के किनारे से लावत हैं और गोबर आसपास से ले आवत हैं। हमार घर की बहुरिया भी सर्दी में गोबर पाथैय का काम करत हैं। चूल्हा तो हम ही बनाई हैं। मूला खतम होई के बाद एक दू महीना आराम करन के बाद फिर से अगले साल का तैयारी में जुटत हैं। घर के मरद दूसरन काम करत हैं।''

Umakant yadav