मुगलों का भी दिल अजीज रहा है रोशनी का त्योहार

punjabkesari.in Saturday, Oct 26, 2019 - 12:33 PM (IST)

प्रयागराजः धर्म के नाम पर समाज को बांटने की फितरत भले ही कुछ कट्टरपंथियों और सांप्रदायिक ताकतों में आज भी कायम है, लेकिन इतिहास गवाह है कि मुगलकालीन दौर में ज्यादातर बादशाह रोशनी का त्योहार पूरी शिद्दत से मनाते थे। कुछ शहंशाह तो बाकायदा लक्ष्मी पूजन कर गंगा जमुनी तहजीब की अनूठी मिसाल पेश करते थे। इतिहासकारों के मुताबिक हिंदुओं की तरह मुगल बादशाह भी लक्ष्मी-गणेश पूजन कर धूमधाम से दिवाली मनाते थे। इस दौरान गरीबों को उपहार बांटते थे।

आतिशबाजी का आनंद लेने के बाद शहर में निकलकर रोशनी का लुत्फ उठाते थे। वे इस पर्व को कौमी एकता त्यौहार के रूप में मनाते थे। बाबर के उत्तराधिकारी हुमांयू ने इस परंपरा को केवल बरकरार ही नहीं रखा बल्कि इसे और बढ़ावा देने के साथ हर्षोल्लास के साथ मनाते भी थे। इस अवसर पर वह लक्ष्मी के साथ अन्य देवी-देवताओं की विधि-विधान से पूजा अर्चना करवाते थे। तत्कालीन ऐतिहासिक पुस्तकों, इतिहासकार, साहित्यकार और समीक्षकों ने मुगल शासकों के बारे में दीवाली और लक्ष्मी पूजन का वर्णन किया है। हुमायूं की दिलचस्पी हिंदू परंपरा तुलादान में भी थी। वह स्वयं तुला दान करते थे। उसके बाद बादशाह जफर भी तुला दान करते थे। उन्हें सात किस्म के अनाजों से और दूसरी बार चांदी के सिक्कों से तौल कर गरीबों में बांट दिया जाता था।

आगरा से हुई थी दिवाली जश्न की शुरुआत
इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि शहंशाह अकबर के शासनकाल में पूरे देश के अंदर गंगा-जमुनी तहजीब और परवान चढ़ी। उनके शासनकाल में दिवाली जश्न की शुरुआत आगरा से की गई थी। बादशाह शाहजहां जितनी शान-ओ-शौकत से ईद मनाते थे ठीक उसी तरह दिवाली पर्व भी मनाते थे। दिवाली पर पूरा किला रोशनी में जगमगाने लगता था। किले के अंदर स्थित मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना की जाती थी। इस मौके पर शाहजहां अपने दरबारियों, सैनिकों और अपनी रिआयात में मिठाई बंटवाते थे।

Deepika Rajput