‘रहते थे कभी जिन के दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह, बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह’

punjabkesari.in Wednesday, May 23, 2018 - 01:54 PM (IST)

लखनऊः अदब के आदाब, रूमानियत और इंसानियत से आबाद कलाम रचने वाले शायरों और गीतकारों में मजरूह सुल्तानपुरी का मर्तबा बहुत ऊंचा है। पुरमग्‍का नग्‍़मों के जरिए तमाम दुनियावी सवालात के जवाब ढूंढते मजरूह के कलाम में जिंदगी से जुड़े मगर अनदेखे-अनछुए पहलुओं से रूबरू कराने की जबरदस्त कूवत थी। मगर अब उनके वतन सुल्तानपुर में ही उन्हें फऱामोश कर दिया गया है। मजरूह की कलम की स्याही, नग्‍़मों और नज्मों की शक्ल में ऐसी गाथा के रूप में फैली जिसने उर्दू शायरी को महका मोहब्बत के सब्जबागों से निकालकर दुनिया के दीगर स्याह-सफेद पहलुओं से भी जोड़ा। साथ ही उन्होंने रूमानियत को भी नया रंग और ताजगी दी। 24 मई उनकी पुण्यतिथि है, आइए जानते हैं उनके जीवन से जुड़े कुछ पहलू। 

मजरूह एक मशहूर शायर थे
नेशनल काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंग्‍वेज के पूर्व उपाध्‍यक्ष शायर वसीम बरेलवी की नजर में मजरूह एक ऐसे शायर थे जिनके कलाम में समाज का दर्द झलकता था। उन्होंने जिंदगी को एक दार्शनिक के नजरिए से देखा और उर्दू शायरी को नए आयाम दिए। उनके लिखे फिल्मी गीतों में एक नयापन और अपनापन महसूस किया जा सकता है। उन्‍होंने कहा कि बुनियादी तौर पर मजरूह का ताल्‍लुक गक़ाल की रवायत से था। जो रवायत हमें फ़ानी और जिगर से मिली, मजरूह उसके सरपरस्‍त थे। उन्‍होंने अपनी शायरी में जो अल्‍फाका इस्‍तेमाल किए, उनसे अदब की सारी जिम्‍मेदारियां वाबस्‍ता थीं। 

मजरूह के घर की चहारदीवारी के सिवा अब उनकी कोई निशानी नहीं
मजरूह ने वह काबान इस्‍तेमाल की जो उस दौर में बहुत पसंद की जाती थी। मजरूह ने गक़ाल की जिम्‍मेदारियों और नजाकतों से जुड़कर जितना काम किया, मुझे नहीं लगता कि किसी और ने किया होगा। मगर अफसोस की, मजरूह के आबाई वतन में ही उन्हें फऱामोश कर दिया गया है। मजरूह के खानदान के करीबी जियाउल हसनैन ने बताया कि सुल्तानपुर में अब मजरूह के घर की चहारदीवारी के सिवा उनका कोई निशान बाकी नहीं है। कई साल पहले जिला प्रशासन ने शहर में‘मजरूह उद्यान’के लिए कुछ जमीन आवंटित की थी मगर वह इस वक्त उजाड़ है। उसका कोई पुरसाहाल नहीं है। उन्होंने बताया कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुल्तानपुर का नाम रोशन करने वाले मजरूह की याद में जिले में कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जाता। करीब 2 साल पहले कादीपुर तहसील में एक संस्था ने उनकी याद में एक जलसा आयोजित किया था। मगर उसके बाद वह सिलसिला भी खत्म हो गया।      

मजरूह ने फिल्‍मों में भी नग्‍मे लिखे
बकौल वसीम, मजरूह ने फिल्‍मों में जो नग्‍मे लिखे, उन्‍हें भी उन्‍होंने गक़ाल की दौलत से मालामाल करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ा। इत्‍तेफाक की बात यह भी है कि उन्‍हें फिल्‍म जगत का ऐसा दौर मिला जब उर्दू शायरी की अहमियत अपने उरूज (चरम) पर थी। इससे पहले और उसके बाद सिनेमाई दुनिया में ऐसा दौर कभी नहीं आया।     उन्‍होंने कहा कि मजरूह का यह अहम योगदान है कि फिल्‍मी दुनिया में रहकर भी उन्‍होंने इल्‍मी तकाजों को अपनी शायरी के जरिये पूरा किया। उनके जो गाने वक्‍ती और चलते-फिरते मौजू पर थे, वहां भी उनका कलम अपने वक़ार (गरिमा) को बनाये रख सका। इस तरह मजरूह ने अदबी कद्रों का भी लिहाज रखा और साथ ही दौर-ए-हाजिर के तकाजों का भी ख्‍याल किया।     

‘दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें’
मजरूह का लिखा गीत ‘दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें’खासकर पसंद किया गया। मजरूह को फिल्मी गीत लिखने के लिए ज्यादा लोकप्रियता मिली लेकिन शायर मुनव्‍वर राना की नकार में मजरूह दिल से गक़ाल के ही शायर थे। राना ने बताया कि मजरूह उर्दू गक़ाल के सबसे बड़े शायर थे। गजल तो मजरूह की जान थी और अगर वह फिल्‍म इंडस्‍ट्री में नहीं होते तो शायद गजल को और भी ऊंचे मक़ाम बख्‍श सकते थे। मजरूह ने फिल्मों के लिए लिखा जरूर, लेकिन गक़ाल उनका पहला प्यार थी। उन्होंने फिल्मी गानों में भी उर्दू अदब की तासीर को बरकरार रखने पर पूरा ध्यान दिया था। अपने गीतों के जरिए लोगों को जिंदगी के अहम पहलुओं पर सोचने को मजबूर करने, मोहब्बत की ताकागी भरी छुअन का एहसास कराने और जीवन के अनछुए पहलुओं को गीतों और गक़ालों में पिरोने वाले मजरूह का 24 मई 2000 को मुम्बई में निधन हो गया। वह इस फ़ानी दुनिया से भले ही चले गए हों, लेकिन अपने नग्‍मों और गजलों की शक्‍ल में वह हमेशा हमारे बीच रहेंगे। 

Ruby