हाथरस की ‘निर्भया’ के बाद भी महिलाओं की सुरक्षा को लेकर क्यों गंभीर नहीं है देश का राजनीतिक नेतृत्व?

punjabkesari.in Tuesday, Oct 06, 2020 - 11:30 AM (IST)

 

रुद्रप्रयाग (डॉ. दलीप सिंह बिष्ट): भारत में कई दशकों से राजनीति में जातिवादी और धार्मिक ध्रुवीकरण के जरिए राजनीतिक दलों ने खुद को मजबूत किया है। लंबे समय से भारत में राइट विंग, लेफ्ट विंग, समाजवादी दलों और मध्यम मार्गी कांग्रेस पार्टी ने राजनीति में जातिवाद का इस्तेमाल अपने हितों को साधने के लिए किया है। इसी प्रयोग से ‘वोट बैंक की थ्योरी’ ने आकार लिया और अब भारत के अलग-अलग हिस्सों में राजनीतिक दलों ने इस वोट बैंक के वटवृक्ष में जमकर खाद-पानी डाला है।

देश के राजनीतिक दलों को इस खतरनाक और विभाजक सोच के जरिए वोटों की फसल काटने की आदत पड़ी हुई है और यही वजह है कि अब अपराध को भी जाति और धर्म के चश्मे से देखा जाने लगा है। देश में कहीं भी बलात्कार और हत्या जैसी कोई भी घटना होती है तो उसमें पीड़ित का दुख-दर्द नही बल्कि राजनीतिक दलों को उनका जाति और धर्म नजर आता है। इसी सोच के आधार पर राजनीतिक दलों के दिग्गज नेता आगे की रणनीति तैयार करते हैं, लेकिन इस प्रकार की राजनीति देश को कहां और किस दिशा में ले जाएगी इस पर विचार किया जाना बेहद जरूरी है।
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महिलाओं के खिलाफ अपराध रोकने के लिए सख्त कानून बनाने की जिम्मेदारी विधायिका की है, लेकिन कई जनप्रतिनिधियों के खिलाफ ही संगीन मामले चल रहे हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स यानी एडीआर ने अपने एक रिपोर्ट में दावा किया था कि कम से कम 18 सांसदों और 58 विधायकों के खिलाफ महिलाओं के खिलाफ जुर्म के मामले दर्ज हैं। इन जन प्रतिनिधियों ने यह जानकारी खुद ही चुनाव आयोग को दी है। संसद के कई सदस्य जब खुद ही अपराध की घटनाओं में शामिल रहेंगे तो उनसे अपराध पर लगाम लगाने के लिए कड़े कानून बनाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है।
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हाथरस की घटना के बाद देश का मीडिया और राजनीतिक दलों के लोग दुखी और पीड़ित परिवार को न्याय दिलाने के लिए आवाज उठा रहे हैं, लेकिन कुछ दलों की प्रतिक्रिया को देखकर ये महसूस होता है कि वे इस मामले को राजनीतिक रंग दे रहे हैं। हाथरस में जो कुछ हुआ है वह देश, सरकार और मानवता को शर्मसार करने वाली एक दुखद घटना है, परन्तु ऐसी घटना चाहे हाथरस में हो या देश के किसी अन्य भाग में हों उन्हें जाति, धर्म के आधार पर नहीं बल्कि गुनाह के आधार पर देखा जाना चाहिए। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने साल 2019 में ‘भारत में अपराध’ पर एक रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 4 लाख 5 हजार 681 मामले दर्ज हुए थे। 2018 की तुलना में महिलाओं के खिलाफ अपराध में 2019 में 7.3 फीसदी का इजाफा हुआ था। इस रिपोर्ट के मुताबिक हर 16 मिनट पर एक महिला के साथ भारत में बलात्कार जैसा जघन्य अपराध हो रहा है। इस लिहाज से साल 2019 में भारत में हर रोज 88 महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी शर्मनाक घटना हुई। महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल मामलों में 11 फीसदी मामले दलित समुदाय के खिलाफ दर्ज किए गए।
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नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के ये आंकड़े दिल दहला देने वाले हैं, लेकिन एक समाज के तौर पर हम इस अमानवीय और बर्बर अपराध के खिलाफ जागरूकता फैलाने में नाकाम रहे हैं। दिल्ली और हाथरस की निर्भया के मामले में हमारी त्वरित प्रतिक्रिया होती है, कुछ दिन शोर-शराबा और हंगामा के बाद हम इस समस्या को लेकर आंख मूंद लेते हैं। सभी को याद होगा कि निर्भया कांड के बाद दिल्ली में ही बलात्कार की कई घटनाएं हो चुकी है लेकिन ऐसा विरोध कहीं नजर नहीं आया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक दल कुकृत्यों के पीछे भी अपने राजनीतिक हानि-लाभ को देखते हुए आवाज उठाते है। इसमें कोई एक दल नही, बल्कि सभी राजनीतिक दल और अंधों की तरह उनका पालन करने वाले लोग बराबर के जिम्मेदार हैं। गुनाह, गुनाह है चाहे वह किसी ने भी किया हो और किसी के साथ भी हुआ हो उसे उसी नजर से देखा जाना चाहिए और उसी आधार पर सजा भी होनी चाहिए।
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राजनीति के मंचों पर जाति, धर्म, क्षेत्र के आधार पर राजनीति करने वालों पर प्रहार करने वाले भाषणबीर स्वयं इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है। प्रत्याशी चयन से लेकर संगठन के पदों तक सब जगह इसी आधार पर चयन होता है और इसी आधार पर समाज के बीच भी राजनीति की जाती है, परन्तु उनसे कभी किसी ने पूछा कि यह सब भेदभाव तो आप का ही करा-धरा है। राजनीतिक दलों के लोग भी उसी प्रकार हमारी आंखों में धूल झोंककर केवल अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए है। उन्हें इन घटनाओं से कोई फर्क नही पड़ता है क्योंकि उन्हें इनमें भी राजनीति के सिवाय कुछ नजर नही आता है, जिसको समझने की आवश्यकता है।

राजनीति के ऊंचे-ऊंचे पदों पर बैठे लोग यहां तक कि हमारे द्वारा चुने गए कई प्रतिनिधि हत्या, लूट, बलात्कार, अपहरण जैसी घटनाओं में संलिप्त पाए गए है, उनके विरूद्ध तो किसी राजनीतिक दल द्वारा कभी आवाज नही उठाई गई है। यदि आज कही कोई हत्या, बलात्कार जैसे जघन्य अपराध होता है तो दुर्भाग्य से वहां न्याय दिलवाने से पहले जाति और धर्म पूछा जाता है और उसी के आधार पर आंदोलन, धरना, प्रदर्शन किए जाते हैं, ऐसा प्रतीत होता है जैसे मानवीय संवेदनाएं मर चुकी हैं। दुर्भाग्य से इस देश में वे लोग भी है जो आतंकवादियों की सजा को रोकने के लिए आधी रात को कोर्ट खुला लेते है परन्तु किसी पीड़ित को न्याय दिलाने के नाम पर वे खामोशी ओढ़ लेते हैं।

यदि सभी राजनीतिक दल बलात्कार, हत्या, अपहरण को गलत मानते है तो इसके बीच में पक्ष-विपक्ष कहां से आ जाता है। सभी दल एक होकर क्यों नही अन्याय के विरोध लडाई लड़ते है? यहां भी तेरा गुनाह बुरा, मेरा गुनाह अच्छा के कुतर्क देकर समाज को भ्रमित किया जाता है। यह इससे भी समझा जा सकता है कि जिस प्रदेश में जिस राजनीतिक दल की सरकार होती है वहां वह दल ऐसी घटनाओं पर चुपी साध लेता है और जहां वह दल सत्ता से बाहर होता है वहां अपना राजनीतिक भविष्य इन गुनाहों में तलाशता है। इसलिए आज गुनाहगारों को सजा और पीड़ित परिवार को न्याय दिलाने की नही बल्कि अधिकत्तर दल अपनी राजनीतिक जमीन बचाने की चिंता में नजर आ रहे है।

महिलाओं के खिलाफ अपराध से निपटने के लिए सरकार, न्यायपालिका, पुलिस और सामाजिक संगठनों को एक समग्र सोच अपनानी चाहिए। एक ऐसा तंत्र तैयार किया जाना चाहिए जिसकी मदद से अपराध को होने से पहले ही रोक दिया जाए। अगर महिलाओं के खिलाफ अपराध हो तो अलग फास्ट ट्रैक कोर्ट के जरिए इसकी सुनवाई की जानी चाहिए। एक जीवंत कानून और पुलिस सिस्टम से ही महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध पर नकेल कसी जा सकती है। साथ ही अगर हम बेटियों के साथ बेटों को भी अनुशासन और नैतिकता का पाठ पढ़ाएं तो भी महिलाओं की सुरक्षा की जा सकती है। छिटपुट और फौरी प्रतिक्रिया से हमारे समाज के इस कैंसर का इलाज नहीं किया जा सकता है बल्कि अब तो इस समस्या के लिए समाज की सर्जरी की जरूरत है।

लेखकः  डॉ. दलीप सिंह बिष्ट
विभागाध्यक्ष, राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय अगस्त्यमुनि, रुद्रप्रयाग
(डिस्क्लेमर- इस आलेख में जो विचार व्यक्त किए गए हैं वे लेखक के निजी विचार हैं)

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