क्या इस बार जलेंगे कुम्हारों के घर खुशी के दिए? बोले- लोग कहते हैं गंदगी, लेकिन एक दिन इसी में मिलना है...
punjabkesari.in Friday, Oct 29, 2021 - 05:28 PM (IST)
उन्नाव: दीपावली काफी नजदीक आ चुकी है, दिन नजदीक आते ही कुम्हारों के चाक की रफ्तार भी तेज हो चुकी है। कोरोना काल में संकटों का सामना कर चुके कुम्हारों को अब दीपावली से उम्मीदें बंधी हैं। इसी उम्मीद में कुम्हार काफी संख्या में मिट्टी के दीए गढ़ रहे हैं मिटटी की मूर्तियां बना रहे है। कुम्हारों को विश्वास है कि चीन से चल रही तकरार के कारण इस बार दीपावली पर लोग मिट्टी का दीया और मिटटी से बनी मूर्तियों को अधिक पसंद करेंगे। मिट्टी के दीयों से सबके घर जगमगाएंगे सबको विश्वास है कि कोरोना काल में मुश्किलों का सामना कर चुके कुम्हार इस बार व्यवसाय को काफी राहत मिलेगी।
बता दें कि भारत देश में बेजान मिटटी में अपनी कला से जान डालने वाला कुम्हार आज अपनी इस कला के लिए आसू बहाता नजर आ रहा है, क्योंकि जान डालने की कला उन्हें जो विरासत में मिली है। वो आज दम तोड़ती नजर आ रही है, जो कुम्हार मिटटी को अपने जीवन का आधार मानते है वो आज इस आधार को खोते नजर आ रहे है। कोरोना के बाद अब महंगाई की मार, मौसम की मार, के साथ ही बाजारों में प्लास्टिक तथा चाइना के उत्पादों के बने साम्राज्य ने इनके वजूद को जैसे मिटा ही डाला है। इनके जीवन को गति देने वाले चाक की गति भी धीमी पड़ गई है, जहां अब पुरानी पीढ़ी के लिए अब यह सिजनल पेशे तक सीमित रह गई है।
वहीं नई पीढ़ी इस धंधे से दूरी बना रही हैं। अब मिट्टी के बने सामान मात्र पूजा-पाठ तक ही सीमित रह गए हैं। पुराना पेशा जैसे अभिशाप बनता जा रहा है। यही वजह है कि पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही यह खानदानी पेशा अब दम तोड़ने लगा है। वहीं मुनाफा भी अब पहले जैसा नहीं रह गया है। कुम्हार अपने हुनर से मिटटी में जान डालकर दिए, घड़े, कलश, खिलौने और देवी देवताओं की मूर्तियों में जान डालकर अनमोल बना दिया करते हैं, लेकिन आज उनकी इस कला पर पानी फेरने का काम करने वाले चाइना व प्लास्टर ऑफ़ पैरिस काम कर रहे हैं।
राम कुमारी का कहना है कि राम कुमारी इसमें पूरा दिन लगता है। दूसरा दिन भी लग जाता है। बनाते समय अब लागत तो बहुत आती है मिट्टी भी मंगानी है कंडे भी मंगाना है रंग भी मंगाना है तार भी मंगाना है लागत बहुत आती है नुकसान तो होता नहीं है फैदा भी नहीं किसी तरह जीविका चल रही है ये हमारी समझ से तो मिट्टी की कीमत बहुत कम होती जा रही है उनके आगे अब यह कोई ज्यादा लेता नहीं है क्योंकि वह ज्यादा सस्ती पड़ती है यह महंगी पड़ रही है।
लोग कहते हैं गंदगी, लेकिन हम कहते हैं एक दिन इसी में मिलना है...
कुमहार शिवरानी का कहना है कि चीजे बनाने में लागत तो बहुत आती है, लेकिन कुछ निकलता नहीं है। इसमें रोटी दाल चल जाता है। उन्होंने कहा कि लखनऊ में मूर्तियां ज्यादा महंगी बिकती हैं, यहां तो बिल्कुल सस्ती बिकती हैं जितनी मेहनत उसकी कीमत कुछ नहीं मिल पाती है। मंहगाई भी बहुत है। मिट्टी भी अच्छी नहीं मिलती है। अच्छी मिट्टी मिले तो अच्छा माल बने। अब हम लोगों की उम्र भी इतनी हो रही है, नए बच्चे ये काम करते नहीं है। हम ही लोग हैं पुराने थोड़ा बहुत बना रहे हैं। वह भी खत्म हो जाएगा, हां कहते हैं गंदगी है मगर हम कहते हैं एक दिन इसी में मिलना है इसी में इससे क्यों पीछे हटे, जब तक हमारी जिंदगी है तब तक हम कर रहे हैं। बाद में बच्चे करें या ना करें।